लीजिये आज हम फिर से
हाज़िर हैं एक नए और रोचक कहानी के साथ.. तो चलिए बिना देर किये पढ़ते हैं कहानी- कहानी
कौशल नरेश की... तो चलिए शुरू करते हैं आज की कहानी...
एक समय ऐसा था,
जब कौशल के राजा का नाम दिग्-दिगन्त में फैल रहा था। उन्हें
दीनों का रक्षक और निराधार का आधार माना जाता था। काशीपति ने उनकी कीर्ति से
जल-भुन कर उन पर आक्रमण कर दिया। कौशल नरेश हार कर वन में भाग गए। पर कौशल में
किसी ने काशीराज का स्वागत नहीं किया। काशीराज ने देखा,
तो उन्हें लगा कि प्रजा कौशल का सहयोग कर कहीं पुन: विद्रोह
न कर बैठे। इसलिए शत्रु को निश्शेष करने के लिए घोषण कर दी,
‘जो कौशलपति को ढूंढ लाएगा उसे सौ
स्वर्ण मुद्राएं दी जाएंगी।’ जिसने भी घोषणा सुनी, उसने आंख-कान बंद कर दांतों से जीभ दबाकर तौबा की।
उधर कौशल नरेश वन-वन
में मारे-मारे फिर रहे थे। एक दिन एक पथिक उनके सामने आया और पूछने लगा,
‘वनवासी! इस वन का कहां जाकर अंत
होता है और कौशलपुर का मार्ग किधर से है?’
राजा ने पूछा,
‘तुम वहां किसलिए जाना चाह रहे हो?’
‘मैं
एक व्यापारी हूं। मेरी नौका डूब गई है, अब कहां द्वार-द्वार भीख मांगता फिरूं! सुना था कि कौशल का
राजा बड़ा उदार हैं, अतएव उसी के दरवाज़े जा रहा हूं।’
थोड़ी देर कुछ
सोच-विचार कर राजा ने कहा, ‘चलो, मैं तुम्हें वहां तक पहुंचा देता हूं, तुम बड़ी दूर से हैरान होकर आए हो।’
कुछ दिनों बाद काशीराज की राजसभा में जटाधारी व्यक्ति आया। काशीराज ने उससे पूछा, ‘कहिए, किसलिए आना हुआ?’
‘मैं
कौशलराज हूं! तुमने मुझे पकड़ लाने वाले को सौ स्वर्ण मुद्राएं देने की घोषणा कराई
है। बस,
मेरे इस साथी को वह धन दे दो। इसने मुझे पकड़ कर तुम्हारे
पास उपस्थित किया है।’
सारी सभा सन्न रह
गई। प्रहरी की आंखों में भी आंसू आ गए। काशीपति सारी बातें जान-सुनकर स्तब्ध रह
गए। क्षणभर शांत रह कर वह बोल उठे, ‘महाराज! आज युद्धस्थल में इस दुरन्त आशा को ही जीतूंगा।
आपका राज्य भी लौटा देता हूं, साथ ही अपना हृदय भी प्रदान करता हूं।’
यह कह कर काशीराज ने कौशलपति का हाथ पकड़ कर उनको सिंहासन पर बैठाया और मस्तक पर मुकुट पहना दिया। सारी सभा ‘धन्य-धन्य’ कह उठी। व्यापारी को मुख मांगी मुद्राएं प्राप्त हो गईं।
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