लीजिये आज हम फिर से हाज़िर हैं एक नए और रोचक कहानी के साथ. जिसको लिखा है केदार शर्मा ‘निरीह’ ने. तो चलिए बिना देर किये पढ़ते हैं कहानी-परदेस में मिली एक सीख. तो चलिए शुरू करते हैं आज की कहानी...
रामलाल ने आखि़रकार शहर में आकर नया किराए का कमरा ले ही लिया। आज पहला दिन था। दुपहर से शाम तक का समय तो कमरा जमाने में ही लग गया। शाम को खाना खाकर पति-पत्नी दोनों अनमने-से बैठ गए। नई जगह, नया मकान और अनजान लोग। तन्हाई धुंध की तरह दोनों के भीतर पसरी हुई थी। पहले तो गांव में अपने दो छोटे भाइयों और उनके पत्नी-बच्चों के साथ संयुक्त परिवार में रह रहा था। परंतु परिवार में अब छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़े होने लगे थे। कभी बच्चों को लेकर तो कभी बिजली के बिल को लेकर, तो कभी रोज़मर्रा के काम को लेकर। वह रोज़ शहर से मज़दूरी करके वापस घर आता तो शाम को कलह तैयार मिलता।
कभी-कभी तो वह
उद्विग्न होकर बिना खाना खाए ही सो जाता। फिर धीरे-धीरे वे लोग मारपीट पर उतरने
लगे। शाम को पत्नी रोती-सिसकती शिकायतों का ग़ुबार निकालती मिलती। जब वह भाइयों और
उनकी पत्नियों को उलाहना देता तो फिर नए सिरे से कलह छिड़ जाता। आख़िरकार परेशान
होकर उसने शहर में बसने का निश्चय कर लिया। शहर के प्रति आकर्षण रामलाल के अवचेतन
में कुंठा बनकर बचपन से ही घर किए हुए था। परिस्थितियों ने इसको हवा दी। वैसे भी
रोज़गार के लिए, इलाज के लिए और हाट बाज़ार में ख़रीदारी के लिए उसे शहर आना ही पड़ता था। उसका
यह स्वप्न आज यथार्थ में बदल चुका था, पर न जाने क्यों उखाड़कर दूसरी जगह लगाए पौधे की तरह
उसका मन कुम्हलाया हुआ था। दरवाज़ा खुला था। उसे मकान मालिक अपनी पत्नी के साथ आता
दिखाई दिया। सामान्य अभिवादन के आदान-प्रदान के पश्चात बातचीत का सिलसिला शुरू
हुआ।
मकान मालिक ने
खोद-खोदकर सारी जानकारी ली। पता चला कि बंगला बनवाते समय यह कमरा मज़दूरों के रहने
और उनका निजी सामान रखने के लिए था और पहली बार रामलाल को किराए पर दिया गया है।
सुबह सब चाय पीकर उठे ही थे कि मकान मालकिन की आवाज़ सुनाई पड़ी, ‘ट्यूबवेल चलने
वाला है, पानी भर लो, नहा-धो लो। एक
घंटे बाद बंद हो जाएगा।’ राधा ने जल्दी से बरतन साफ़ किए, पानी भरा, सभी जल्दी से
नहा-धोकर तैयार हुए। एक घंटे तक हड़कंप मचा रहा। रामलाल को इस समय गांव की याद आ
रही थी। जब चाहो तब तालाब जाकर नहा लो। कपड़े धो लो। पर अब तो घड़ी पर नज़र रखनी
होगी। चंद दिनों में हाल यह हुआ कि सुबह आठ से नौ बजे का समय चूक गए तो देरी के
लिए दस बातें सुननी पड़ती थीं, तब जाकर दुबारा ट्यूबवेल चलाया जाता।
यद्यपि दोनों ख़ूब
सतर्कता रखते और कोशिश करते कि किसी को किसी तरह की शिकायत न हो, पर कभी मकान
मालिक तो कभी मकान मालकिन किसी न किसी तरह की हिदायत देते रहते, ‘वहां सफ़ाई रखो, इधर कचरा मत डालो, उधर मंजन मत करो।’ रामलाल को एक
फैक्ट्री में काम मिल गया था। वेतन भी पर्याप्त मिलने लगा था। शाम को जब वह घर आता
तो राधा के चेहरे पर वही उदासी टंगी मिलती। किसी बुझती हुई बाती में डाले गए तेल
की तरह उसका घर लौटना दोनों बच्चियों की आंखों में चमक ला देता। वह दोनों बच्चियों
के साथ घंटों खेलता रहता। एक दिन रामलाल बच्चियों को कहानी सुना रहा था कि किसी ने
दरवाज़ा खटखटाया। देखा तो मकान मालिक था। बेटी तन्नू ने लाकर एक कुर्सी रख दी पर वह
बैठा नहीं बल्कि कमरे का गहराई से मुआयना करने लगा।
खिड़की की दीवार के साथ सहारा लगाकर रखी गई मटकी की ओर अचानक उसका ध्यान गया, ‘यह मटकी यहां क्यों रखते हो? देखो इस लोहे की जाली में इसी के कारण ज़ंग आ चुका है।’ ‘आगे से यहां नहीं रखेंगे, श्रीमानजी, पर यह ज़ंग तो पहले से ही आया हुआ था,’ राधा ने आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया। वह अपने तर्क देता रहा। राधा उसके हर तर्क को काटती रही। आख़िरकार वह बड़बड़ाता हुआ चला गया। धीरे-धीरे रामलाल और राधा को लगने लगा कि मकान मालिक और मालकिन अक्सर गंभीर और मौन ही रहते हैं।
केवल कुछ जानकारी
लेने के उद्देश्य से बोलते हैं, निरीक्षण करने के बहाने कमरे में आते हैं। यह वह
बस्ती है जिसमें सब अपने काम से काम रखते हैं। बिना काम कोई नमस्ते भी नहीं करता।
गर्मियों के लंबे और उमस भरे दिन आ चुके थे। सब ओर कोरोना के आतंक का साया था और
हर कहीं सन्नाटा छाया हुआ था। राधा पास की दुकान से सब्ज़ी लेकर लौट रही थी कि
अचानक उसकी नज़र एक परिचित महिला पर पड़ी जो बग़ल के मकान से निकली थी। ‘अरे रानी भाभी
आप!’ राधा ने आश्चर्य
के साथ कहा। ‘मेरा तो यहां पीहर है। गांव से आने के दूसरे दिन से ही लॉकडाउन लग गया और तब
से मंै यहीं हूं। लेकिन राधा भाभी आप?’ ‘हां भाभी, मैं भी साल भर से यहीं इस मकान में किराए का कमरा
लेकर रह रही हूं। वे यहीं पर एक फैक्ट्री में काम करते हैं। गांव में कैसे हैं सब? शहर में आने के
बाद गांव की कुछ ख़ैर-ख़बर ही नहीं है।’ राधा जानने को उतावली थी। ‘हम भी हमारे गांव
के चौराहे वाले मकान को ख़ाली करके गांव से बाहर रतनपुरा की ढाणी में रहने लगे
हैं।
वहीं पर हमारे
खेत और कुआं है। सोच रहे हैं गांव के मकान को बेच दें।’ रानी बता रही थी।
राधा को तो मानो घोर अंधेरे में प्रकाश की कोई किरण मिल गई थी। ‘भाभी, वह मकान हम ले
लेंगे। वहां रोज़-रोज़ की किचकिच से परेशान होकर यहां आ तो गए हैं पर इस मुए शहर
में तो मेरा दम घुटने लगा है।’ राधा भावुक होकर साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछने
लगी। ‘अरे, दुखी मत होओ, भाभी। तुम जिस
दिन चाहो गांव जाकर उस मकान में रह सकती हो।’ रानी भाभी के इन शब्दों ने जैसे राधा के सिर से मनो
बोझ उतार लिया था। राधा कमरे पर गई तो मकान मालकिन को अपनी ओर देखते पाया। ‘सुनो!’ राधा ने पलटकर
देखा, वह कुछ कह रही थी, ‘अपने हाल में
मस्त रहा करो, ये लोग अच्छे नहीं हैं। उसने बग़ल के मकान की ओर इशारा करके कहा।
राधा ने सुना और
चुपचाप बिना जवाब दिए अंदर चली गई। वैसे तो रानी भाभी ने भी बता दिया था कि उनकी
इस परिवार से बोलचाल बंद है। पर इससे उसको क्या? सबका अपना-अपना व्यवहार है। शहर की इस काटती तन्हाई
और लॉकडाउन के सन्नाटे में किसी दुर्लभ संयोग से तो कोई खुलकर बोलने वाली सहेली
मिली है। अब तो दोनों सहेलियों की कभी सब्ज़ी लेने जाते समय तो कभी रास्ते में
मुलाक़ात हो जाती। दोनों जी-भरकर बातें करतीं। उस दिन राधा घर से निकली ही थी कि
रानी सामने से आती दिखाई पड़ी। दोनों मकान के सामने स्थित गुलमोहर के वृक्ष के
नीचे खड़ी होकर घंटों बतियाती रहीं।
अगले दिन राधा
सुबह बाहर चौक में कपड़े धो रही थी। रामलाल ध्यान करने के लिए बैठ चुका था। मकान
मालकिन वहां आई और ऊंची आवाज़ में बोली, ‘देखो, हमारा कमरा ख़ाली कर दो। हमारे ही मकान में रहकर
हमारे ही दुश्मनों से हमारी ही बातें करने से बाज़ नहीं आते।’ वह आवेश में
बड़बड़ाए जा रही थी। ‘ठीक है कमरा ख़ाली हो जाएगा।’ राधा ने
आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया और मौन हो गई। उधर भीतर रामलाल ने सुना तो दो बूंद
आंसुओं की टपक पड़ीं। जिस किचकिच से बचने के लिए वह यहां आया था वह तो यहां भी
पीछा नहीं छोड़ रही है। ‘अब मैं यहां से कहां जाऊंगा। कोई रास्ता दिखाना
प्रभु।’ रामलाल उसी समय
घर से निकला और फैक्ट्री के एक मित्र के सहयोग से दूसरा कमरा देख, पेशगी के तौर पर
पांच सौ रुपए भी दे आया। उधर राधा पीहू और तन्नू के सहयोग से सामान पैक करने लगी।
सुबह का सूरज
निकलने के साथ ही सामान छोटी लॉरी में पीछे की ओर रखा जा चुका था। आगे केबिन में
राधा और रामलाल बैठ गए। गाड़ी रवाना हो गई। थोड़ी दूर एक चौराहे के पहले ड्राइवर
ने कहा, ‘किधर मुड़ना है
साहब?’ ‘गाड़ी विश्वकर्मा
नगर की ओर मोड़ लो।’ रामलाल ने इशारा किया। राधा बोली, ‘नहीं भैया, गाड़ी को सीधे
हरिपुरा गांव की ओर मोड़ लो।’ रामलाल चौंक गया, ‘लेकिन मैंने तो वहां पर किराए के कमरे के लिए पेशगी
के पांच सौ रुपए दे दिए हैं।’ ‘दे दिए होंगे, मुझे अब इस शहर में नहीं रहना है। मैंने रानी के ख़ाली
मकान की चाबी ले ली है।’ और गाड़ी गांव की ओर दौड़ने लगी।
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