फील्ड
मार्शल
सैम
मानेकशॉ
ने
कहा
था
कि
अगर
कोई
यह
कहे
कि
उसे
मौत
से
डर
नहीं
लगता
तो
या
तो
वो
गोरखा
है
या
फिर
झूठ
बोल
रहा
है.
कारगिल
शहीद
कैप्टन
मनोज
पांडे
उनकी
इस
बात
पर
पूरे
खरे
उतरे.
गोरखा
रेजीमेंट
के
बहादुर
योद्धा
कैप्टन
मनोज
पांडे
की
आज
22वीं पुण्यतिथि
है.
25 जून 1974 को
उत्तर
प्रदेश
के
सीतापुर
में
जन्में
कैप्टन
मनोज
निर्भीकता
और
पराक्रम
का
उदाहरण
हैं. जुलाई
1999 को कारगिल
की
जंग
में
खालुबार
की
लड़ाई
में
वो
शहीद
होकर
हमेशा
के
लिए
अमर
हो
गए.
अधूरा
रह
गया
मां
से
किया
वादा
‘कुछ
लक्ष्य
इतने
अनमोल
होते
हैं
कि
अगर
आप
उन्हें
हासिल
करने
में
असफल
रह
जाएं
तो
उसमें
भी
मजा
आता
है,’
ये
शब्द
कैप्टन
मनोज
पांडे
ने
अपनी
पर्सनल
डायरी
में
लिखे
थे.
एक
छोटे
से
बिजनेसमैन
गोपीचंद
पांडे
और
गृहणी
मोहिनी
पांडे
के
बेटे
कैप्टन
मनोज
घर
में
सबसे
बड़े
थे.
लखनऊ
के
रानी
लक्ष्मीबाई
मेमोरियल
सीनियर
सेकेंड्री
स्कूल
और
सैनिक
स्कूल
से
शिक्षा
हासिल
करने
वाले
कैप्टन
मनोज
को
बॉक्सिंग
और
बॉडी
बिल्डिंग
का
खासा
शौक
था.
सन्
1990 में वो
उत्तर
प्रदेश
में
एनसीसी
की
जूनियर
डिविजन
के
बेस्ट
कैडेट
चुने
गए
थे.
जून
1997 में पुणे
के
खड़कवासला
स्थित
नेशनल
डिफेंस
एकेडमी
(NDA)
के
90वें कोर्स
से
ग्रेजुएट
होने
वाले
कैप्टन
मनोज
पांडे
को
बतौर
लेफ्टिनेंट
गोरखा
राइफल्स
की
11वीं बटालियन
में
कमीशन
मिला
था.
कैप्टन
मनोज
ने
अपनी
पर्सनल
डायरी
में
लिखा
था,
‘अगर मेरे
फर्ज
के
रास्ते
में
मौत
भी
आती
है
तो
मैं
कसम
खाता
हूं
कि
मैं
मौत
को
भी
हरा
दूंगा.’
24 साल
की
उम्र
में
कैप्टन
मनोज
पांडे
शहीद
हो
गए.
उन्होंने
अपनी
मां
से
वादा
किया
था
कि
वो
अपने
25वें जन्मदिन
पर
घर
जरूर
आएंगे.
वो
घर
तो
आए
मगर
तिरंगे
में
लिपटकर.
परमवीर
चक्र
जीतना
था
लक्ष्य
जिस
समय
कैप्टन
मनोज
पांडे,
का
चयन
एनडीए
के
लिए
हुआ
और
वो
सर्विस
सेलेक्शन
बोर्ड
(एसएसबी) के
इंटरव्यू
में
गए
तो
वहीं
पर
उनके
तेवर
नजर
आ
गए
थे.
यहां
पर
उनसे
सवाल
किया
गया,
‘आप सेना
में
क्यों
शामिल
होना
चाहते
हैं?’
इस
पर
कैप्टन
मनोज
ने
जवाब
दिया,
‘क्योंकि
मुझे
परमवीर
चक्र
जीतना
है.’
कारगिल
की
जंग
में
उन्होंने
अपने
इन
शब्दों
को
सच
साबित
कर
दिखाया.
मई
1999 के शुरुआत
में
जब
कारगिल
सेक्टर
में
घुसपैठ
की
जानकारी
आई
तो
कैप्टन
मनोज
की
बटालियन
सियाचिन
में
डेढ़
साल
का
टेन्योर
पूरा
करके
लौट
रही
थी.
बटालियन
को
इसके
बाद
शांति
काल
के
दौरान
पुणे
में
तैनाती
दी
गई.
लेकिन
कारगिल
में
घटनाक्रम
के
बाद
बटालियन
को
बटालिक
सेक्टर
में
तैनाती
का
आदेश
दिया
गया.
खालुबार
की
लड़ाई
का
योद्धा
उस
समय
यह
सबसे
पहली
यूनिट
थी
जिसे
तैनाती
के
लिए
कहा
गया.
इस
यूनिट
को
तब
कर्नल
(रिटायर्ड) ललित
रात
कमांड
कर
रहे
थे.
यूनिट
को
जुबार,
कुकरथाम
और
खालुबार
इलाकों
की
जिम्मेदारी
दी
गई.
बटालियन
का
हेडक्वार्टर
येल्डोर
में
था.
कैप्टन
पांडे
ने
इस
हिस्से
में
दुश्मन
पर
किए
गए
कई
हमलों
को
लीड
किया
था.
उन्होंने
कई
ऐसी
सफल
रणनीतियां
बनाईं
जिसकी
वजह
से
जुबार
टॉप
पर
सेना
का
कब्जा
हो
सका.
आपको
बता
दें
कि
जुबार,
खालुबार
और
कुकरथाम
बहुत
ही
मुश्किल
चोटियां
हैं.
इनकी
तरफ
सिर
ऊपर
करके
देखने
में
ही
सांस
फूल
जाती
है.
बटालिक
में
भारतीय
सेना
को
काफी
नुकसान
हो
चुका
था.
कैप्टन
पांडे
5 प्लाटून
कमांडर
थे
जब
उनकी
यूनिट
ने
खालुबार
की
तरफ
बढ़ना
शुरू
किया.
2 और 3 जुलाई
1999 की मध्यरात्रि
में
वह
दुश्मन
पर
अंतिम
हमला
करने
के
लिए
अपनी
पलटन
के
साथ
बढ़े.
चारों
ओर
से
दुश्मन
गोलियां
बरसा
रहा
था.
कैप्टन
पांडे
को
घुसपैठियों
को
बाहर
खदेड़कर
पोस्ट्स
पर
दोबारा
कब्जा
करने
की
जिम्मेदारी
सौंपी
गई
थी.
दुश्मन
पहाड़
के
ऊपर
था
और
दिन
में
हमला
करने
का
मतलब
कई
जवानों
की
जान
का
जोखिम.
गोली
लगने
के
बाद
भी
दुश्मन
को
किया
ढेर
कैप्टन
पांडे
ने
अपनी
पलटन
को
इस
तरह
से
निर्देश
दिए
कि
दुश्मन
को
सफलतापूर्वक
घेर
लिया
गया.
वह
बिना
डरे
दुश्मन
पर
हमला
करते
रहे.
कैप्टन
पांडे
ने
पहली
और
दूसरी
पोजिशन
से
दुश्मन
को
खदेड़ा
और
जब
वो
तीसरी
पोजिशन
की
तरफ
बढ़
रहे
थे
तो
एक
गोली
उनके
कंधे
में
और
एक
पैर
में
लगी.
अपने
जख्मों
की
परवाह
किए
बिना
कैप्टन
पांडे
चौथी
पोजिशन
की
तरफ
बढ़ते
गए.
ग्रेनेड
फेंक
कर
उन्होंने
यहां
से
भी
दुश्मन
को
भगा
दिया.
बुरी
तरह
से
घायल
होने
के
बाद
भी
उन्होंने
खालुबार
को
जीत
लिया
था
और
यहां
पर
तिरंगा
लहरा
दिया
था.
उनके
इस
साहसिक
काम
के
लिए
उन्हें
मरणोपरांत
परमवीर
चक्र
से
नवाजा
गया
था.
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