भारत में डॉग्स को 'स्टेटस सिंबल' के रूप में देखा जाता है। ज्यादातर लोग विदेशी डॉग्स पालते हैं। अमेरिका, जर्मनी सहित कई देशों से डॉग्स भारत में इम्पोर्ट किए जाते हैं, जिनकी कीमत लाखों रुपए तक होती है। वहीं दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश के रहने वाले रॉबिन सिंह ने एक अनोखी पहल की है। वे सड़कों पर घूमने वाले देशी स्ट्रीट डॉग्स को विदेशों में भेज रहे हैं।
रॉबिन अब तक 100 से
ज्यादा स्ट्रीट डॉग्स को अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, फिनलैंड, इजराइल सहित कई देशों में भेज चुके हैं। उन्हें जानवरों का 'रॉबिनहुड' कहा जाता है।
अच्छी नौकरी के बाद
भी अमेरिका में नहीं लगा मन
साल 2003 में रॉबिन
को अमेरिका में काम करने का मौका मिला। कुछ सालों की कड़ी मेहनत के बाद उनकी लाइफ
सेट हो गई, वे
बेहतर लाइफ जीने लगे। इसके बाद भी वे बहुत ज्यादा खुश नहीं थे।
अमेरिका में उनका मन
नहीं लग रहा था। काफी सोच-विचार करने के बाद रॉबिन ने तय किया कि वे भारत लौटेंगे।
अगस्त 2012 में रॉबिन भारत लौट आए। यहां आने के बाद उन्होंने भारत के अलग-अलग
शहरों में ट्रेवल करना शुरू किया।
एक बुजर्ग महिला से मुलाकात के बाद बदल गई जिंदगी
इसी बीच तमिलनाडु के
ऑरोविले में उनकी मुलाकात 60 साल की एक महिला लोरेन से हुई। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। वे
अक्सर बीमार भी रहती थीं। हालांकि, उनके पास 50 से ज्यादा स्ट्रीट डॉग्स थे, जिनकी देखरेख वे खुद ही करती थीं। लोरेन पास के होटलों से
जूठन कलेक्ट करती थीं और उससे डॉग्स को पालती थीं।
रॉबिन को यह देखकर
काफी तकलीफ पहुंची। उन्होंने तय किया कि वे लोरेन की मदद करेंगे और स्ट्रीट डॉग्स
की लाइफ को बदलने की कोशिश करेंगे। कुछ दिनों तक उन्होंने लोरेन के साथ काम किया।
वे स्ट्रीट डॉग्स को खाना खिलाने के साथ ही उनका ट्रीटमेंट भी करते थे। इससे कई
स्ट्रीट डॉग्स को नई जिंदगी मिली और रॉबिन को एक मकसद मिला।
साल 2013 में रॉबिन ने तय किया कि वे इस काम को बड़े लेवल पर करेंगे। इसके बाद उन्होंने दिल्ली में 'सट्रे डॉग स्टरलाइजेशन' प्रोग्राम की शुरुआत की, जिसके तहत वे स्ट्रीट डॉग्स की नसबंदी करते थे, घायल डॉग्स का इलाज करते थे।
कुछ समय बाद उन्हें
लगा कि इतना करना ही जरूरतमंद जानवरों के लिए काफी नहीं। साल 2014 में उन्होंने हिमाचल प्रदेश में 5 लोगों की एक छोटी टीम के साथ 'पीपल फार्म' नाम से एक NGO की शुरुआत की, जो 'We help animals heal, and be heard' नाम की टैग लाइन पर काम करती है। जिसका मकसद है जरूरतमंद
जानवरों की मदद करना।
कैसे संवारते हैं
डॉग्स की जिंदगी?
रॉबिन ने इसके लिए
एक हेल्पलाइन नंबर जारी किया है। जिसके तहत लोग घायल डॉग्स और दूसरे जानवरों की
जानकारी NGO
को देते हैं। कॉल आने पर रॉबिन की टीम उस जगह से डॉग्स को
रेस्क्यू करती है। उसके बाद फार्म के ही वेटरनरी हॉस्पिटल में उनका इलाज किया जाता
है। ठीक हो जाने के बाद उन जानवरों को वापस उस जगह पर छोड़ दिया जाता है,
लेकिन कई बार ऐसा करना मुमकिन नहीं होता। कई ऐसे जानवर ठीक
हो जाने के बाद भी बाहर सर्वाइव नहीं कर पाते हैं।
चिलगोजा और टिल्लू
पहुंचे शिकागो और इजराइल
एक बार रॉबिन की टीम
को कूड़े के ढेर में एक घायल डॉग मिला, जिसकी पूंछ और पिछला पैर पूरी तरह से चोटिल था। सर्जरी के
दौरान डॉक्टर्स को उसकी पूंछ काटनी पड़ी। सर्जरी के बाद घाव तो ठीक हो गया,
लेकिन उसे चलने में काफी दिक्कत हो रही थी।
पीपल फार्म ने इस
डॉग को चिलगोजा नाम दिया। फार्म में अच्छी देख- रेख की वजह से चिलगोजा की सेहत में
सुधार होने लगा। उसी दौरान शिकागो से आई रइली नाम की एक महिला फार्म में चिलगोजा
से मिली।
रॉबिन बताते हैं
विदेशों में लोग डॉग्स को दोस्त की तरह देखते हैं, या यूं कहिए कि वहां डॉग्स या दूसरे पेट्स के साथ इमोशनल
कनेक्शन देखने को ज्यादा मिलता है। रइली के साथ भी यही हुआ। चिलगोजा के साथ कुछ
वक्त बिताने के बाद वे अपने साथ उसे शिकागो ले गईं।
ऐसी ही दूसरी कहानी
टिल्लू नाम के डॉग की है। टिल्लू को हिमाचल के डलहौजी से रेस्क्यू किया गया। उस पर
तेंदुए ने हमला किया था। टिल्लू बच तो गया, लेकिन उसके शरीर के कई हिस्सों में घाव हो गए थे। ठीक हो
जाने की बाद भी उसकी ऐसी हालत नहीं थी कि वह खुले में जी सके। रॉबिन की टीम ने उसे
एडॉप्शन के लिए इजराइल की डॉ. ओरली से संपर्क किया। पूरी तरह से ठीक हो जाने के
बाद टिल्लू को इजराइल भेज दिया गया।
पीपल फार्म ने अब तक 3000 से ज्यादा जानवरों को रेस्क्यू किया है। जिन्हें ट्रीटमेंट के बाद वापस उनकी जगह पर छोड़ दिया गया है। रॉबिन बताते हैं पीपल फार्म के काम से लोग भी काफी प्रभावित हो रहे हैं। कई लोग सोशल मीडिया पर उनके काम की तारीफ करते हैं और उससे इंस्पायर्ड होते हैं। कई लोग तो अब खुद भी अपने घर पर देशी डॉग्स पालने लगे हैं, जबकि कई लोग उन्हें पैसे भी डोनेट करते हैं।
कहां से जुटाते हैं
फंड?
पीपल फार्म में
तकरीबन 48 पेड वॉलंटियर्स काम करते हैं। इन लोगों के रहने और भोजन का
इंतजाम फार्म के द्वारा ही किया जाता है। आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए
फार्म में ऑर्गेनिक फार्मिंग की जाती है। इसके साथ ही कई दूसरे फूड प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग से भी
वे कुछ इनकम जेनरेट करते हैं। जिसकी मदद से वे अपने इस NGO
का खर्च निकाल लेते हैं। इसके अलावा कई लोग डोनेशन के रूप
में भी उनकी आर्थिक मदद करते हैं। रॉबिन जानवरों की देखभाल के साथ ही पर्यावरण बचाने की मुहिम
से भी जुड़े हैं। वे लोगों को जागरूक भी कर रहे हैं।
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