कहानी- राहत देते कुछ लोग

लीजिये आज हम फिर से हाज़िर हैं एक नए और रोचक कहानी के साथ. जिसको लिखा है एम. एस. शिलेदार ने. तो चलिए बिना देर किये पढ़ते हैं कहानी- राहत देते कुछ लोग... तो चलिए शुरू करते हैं आज की कहानी...

ऑफिस के काम से मुझे कई बार मुंबई जाना पड़ता था। ऐसे ही एक बार मैं मुंबई गया हुआ था। हमेशा की तरह मौसी के घर पर रुका। वहीं से लोकल से बोरिवली ऑफिस जाया करता था। दूसरे दिन की बात है, क़रीब नौ बजे की स्लो लोकल में बमुश्किल चढ़ पाया था। भीड़ भरे डिब्बे में जैसे - तैसे खड़े रहने को मिला। एक - दो स्टेशन के बाद सामने बैठे हुए व्यक्ति ने खड़े होकर मुझे बैठने हेतु अपनी सीट दी। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ, थोड़ी हिचकिचाहट के बाद उसे धन्यवाद देकर मैं बैठ गया। वह नज़दीक ही खड़ा था। फिर मैं मोबाइल में व्यस्त हो गया। अचानक मेरी नज़र सामने पड़ी तो कुछ दूर की सीट पर उसे बैठे हुए देखा। अंधेरी स्टेशन पर फिर से भीड़ चढ़ी।

एक महिला उसके क़रीब पहुंची तो उसने अपनी सीट उसे दे दी। आगे कांदिवली स्टेशन पर उतरते वक़्त उस महिला ने धन्यवाद देते हुए उसे बैठने के लिए कहा पर अन्य कोई व्यक्ति वहां बैठने को तत्पर दिखा तो उसे ही बैठने दिया और स्वयं खड़ा रहा। मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा था। यात्रा के दौरान जबकि सभी बैठना चाहते हैं ये जनाब मिली हुई सीट दूसरे को ख़ुशी से दे रहे थे। मुझे इस व्यक्ति से बात करने की इच्छा हुई। अब मैं उस पर नज़र बनाए हुए था। बोरिवली स्टेशन पर जैसे ही वह उतरा, मैं भी उसके पीछे उतरा और उसे आवाज़ दी - ज़रा सुनिए भाई जी।वह पलटा तो मैंने निवेदन किया, ‘मुझे दो मिनट बात करनी है, क्या आप मेरे साथ चाय पिएंगे? अगर आपको देर हो रही हो तो चलते हुए बातें कर सकते हैं।प्लेटफॉर्म पर सामने ही चाय की दुकान थी।

चाय पीते हुए मैंने उससे कहा, ‘यात्रा के दौरान आपने पहले मुझे, फिर महिला को और अंत में दूसरे व्यक्ति को अपनी सीट दे दी और ख़ुद खड़े ही रहे। क्या आपको बैठना अच्छा नहीं लगता?’ उसके उत्तर ने मुझे बेतरह चौंकाया। उसने कहा, ‘बैठना किसे अच्छा नहीं लगता साहेब, मैं एक साधारण-सी नौकरी करता हूं, जहां मुझे लगभग दिनभर खड़ा रहना पड़ता है। लोकल ट्रेन में मैंने देखा है कि जवान, हट्टे कट्टे बैठे रहते हैं, उनमें से बहुत ही कम लोग बूढ़ों या महिलाओं को अपनी सीट देते हैं। ऐसे ही एक बार मैंने एक वृद्धा को बैठने के लिए अपनी सीट दी तो उतरते समय उसने ख़ुश होकर मुझे आशीर्वाद दिया था। मुझे बहुत ख़ुशी हुई थी। तब से धीरे-धीरे मेरी यह आदत बन गई। उपयुक्त व्यक्ति देखकर मैं अपनी सीट उसे दे देता हूं। दिनभर तो खड़ा रहता ही हूं थोड़ा और सही। उनकी दुआएं मिलेंगी, यही सोचकर ख़ुश रहता हूं। वैसे भी साहेब इसके अलावा मेरे पास देने लायक और कुछ भी तो नहीं है। जो दे सकता हूं, वही दे देता हूं।इतना कहकर चाय के लिए धन्यवाद देकर मुस्कराते हुए वह चला गया।

मैं हतप्रभ-सा उसे देखता रहा। इंसान के दिल में मदद की भावना हो तो वह कैसे भी मदद कर सकता है। उसके इस नज़रिए ने मुझे चौंकाया भी और प्रभावित भी किया।

 

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