कहानी: समाज का डर...

लीजिये आज हम फिर से हाज़िर हैं एक नए और रोचक कहानी के साथ. जिसको लिखा है लीना नाग जी ने. तो चलिए बिना देर किये पढ़ते हैं उनकी लिखी कहानी - समाज का डर...

उस शाम मैं बस अपने साथ रहना चाहती थी। किसी सहेली से बात करने का मन नहीं था। गांव के मेरे अकेलेपन को कोई समझ ही नहीं सकता था। सोचा पास की नदी के किनारे जा बैठूं। ठंडी हवाएं भी थीं। बस बस्ती से बाहर निकल गई, क़रीबन 10 मिनट का रास्ता था। नदी के किनारे एक पत्थर से टिककर बैठ गई। आंसू तो ऐसे झर-झर बह रहे थे मानो सारा ग़म आज ही बह जाएगा। बस कुछ ही देर हुई थे मुझे वहां आए और आकाश में काले बादल छा गए। जी कर रहा था कि बस बैठी ही रहूं। हल्की बारिश भी शुरू हो गई थी, पर रोना तो कि रुक ही नहीं रहा था। अचानक बारिश तेज़ हो गई, यह देख मैं झटपट उठी और घर की ओर दौड़ी। तभी पैर फ़िसल गया। उस पर बारिश, अब उठूं कैसे... पैर में मोच आ गई थी, वस्त्र धूमिल हो गए थे। उठा जा नहीं रहा था और बिजली की कड़कड़ाहट से मैं डर रही थी। बारिश का शोर मेरी आवाज़ किसी तक पहुंचने न दे रहा था। 

थोड़ा उठने का प्रयास किया पर उठ न सकी। किसी के आने की उम्मीद करने लगी कि अचानक छपछप की आवाज़ें मेरी ओर आने लगीं। एक धुंधला-सा साया नज़र आ रहा था। उसके पास आते ही मैंने हाथ उठाया। उसे भी हाथ आगे बढ़ाते देख उम्मीद जागी। उसने उठाया मुझे और घर तक आने में मेरी मदद की। घर में उस वक़्त मैं अकेली ही रहती थी। वो अनजान इंसान था। ऐसे में उसे घर में ज़्यादा देर रोकना ठीक न लगा। लोगों को यह कैसे बताती कि उसने मेरी कितनी सहायता की। मैंने कहा मैं ख़ुद ही मरहम लगा लूंगी। आपका शुक्रिया मेरी मदद करने के लिए।उसने कहा - शुक्रिया की क्या बात है, ये इस वक़्त ज़रूरी था।यह कहकर वह जाने लगा। मैंने रोका उसे, ‘अरे! भाई साहब, नाम तो बताते जाइए’, पर वह शायद सुन न पाया और उस तेज़ बारिश में ही बाहर निकल गया। फिर लौट कर न आया। महीनों बीत गए। मुझे कभी-कभी ख़्याल आता कि कौन था वह? क्या गांव में नया था? पहले कभी तो देखा न था उसे। फिर तकरीबन पांच साल बाद मेरा विवाह हो गया। उस वक़्त मैं इलाहाबाद में अपने पति और बेटे के साथ रहती थी। 

एक दिन पति ने सुबह-सुबह बताया कि आज दूध वाला नहीं आएगा। मैं पास की ही दुकान पर दूध लेने चली गई। दूध लेकर वापस आ ही रही थी कि मोड़ पर कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनाई दी। देखा तो एक कुत्ता मेरी तरफ़ ही आ रहा था। बचपन से कुत्तों से डरती थी, सो मैं वहां से भागी। सामने जो घर दिखा मैं वहीं घुस गई। दरवाज़ा खुला था और शायद सफ़ाई का काम चल रहा था, गीले फर्श की वज़ह से पैर फिसल गया, मुझे ज़ोर की चोट लगती, कि तभी एक आदमी ने मुझे पकड़ लिया। गिरने के डर से भींचीं आंखें खोलीं तो अवाक रह गई। वह वही व्यक्ति था जो मुझे सात साल पहले मिला था। मैं दूर हटी, उससे माफ़ी मांगी। लेकिन उसके बर्ताव से लगा कि उसने मुझे पहचाना नहीं । मैंने जिज्ञासावश उसका नाम फिर से जानना चाहा, तो उसने कहा - मेरा नाम वैभव है।मैंने उसे बताया, कि उसने एक बार मेरी मदद की थी पर उसने कहा कि उसके जीवन में ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ। मैंने ज़्यादा देर रुकना ठीक नहीं समझा और घर वापस आने के लिए मुड़ी, तो मेरी नज़र उससे मिलती-जुलती एक तस्वीर पर पड़ी, जो दीवार के फ्रेम में जड़ी थी और उस पर माला थी। मैं डर गई, पीछे पलट कर वैभव को देखा, तो जान में जान आई। मेरे मनोभाव वह समझ गया। उसने बताया कि ये उससे एक साल बड़े उसके भाई थे, जिनकी आकाशीय बिजली की चपेट में आने से मौत हो गई थी। 

मैंने वह तारीख़ पूछी, तो उसने वही तारीख़ बताई जिस दिन हमारी मुलाक़ात हुई थी। मैंने उसकी मदद का आभार माना और माफ़ी मांगी, जिसकी वजह शायद उसकी समझ में नहीं आई पर उसके बाद में तेज़ी से उसके घर से निकलकर घर आ गई। मुझे विचलित देखकर मेरे पति ने मुझसे कारण पूछा। मैंने सारा घटनाक्रम विस्तार में बताया। मेरी आंखें फिर भर उठीं। शायद उस दिन लोगों के डर से उसे जाने न दिया होता तो वह बच जाता। क्या पता अगर मुझे वह सहारा न देता तो शायद मैं आकाशीय बिजली का शिकार हो गई होती। मेरी जीवनरक्षा कर वह चल दिया, पर मेरा कर्तव्य मैं न निभा पाई। मैं बिलख-बिलख कर रोने लगी। पति ने मुझे समझाया कि ये सब तो ईश्वर के हाथों में है। हमारे हाथ में नहीं। और फिर होनी को कौन टाल सकता है। उस मनुष्य का सौभाग्य था जो अंतिम समय में उसे यह उपकार करने का मौक़ा मिल सका। मैं समझ चुकी थी, पर पछतावा तो था मन में, लेकिन विधाता के खेल को हम केवल देख पाते हैं, समझ में नहीं आता कि ऐसा अबूझ घटता ही क्यों है?

तो ये थी हमारी आज की कहानी. ऐसी ही रोचककहानी पढ़ने के लिए जुड़ें हमारे साथ और अपनी कहानी/कविता/खत पोस्ट करवाने के लिए हमें मेल कीजिये @jmdnewsconnect@gmail.com पर और हमारे साइट को दूसरे प्लैटफॉर्म्स पर फॉलो करने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

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