ऐसे ही तो बनते हैं रिश्ते...
हेलो दोस्तों, आज से हमारे ब्लॉग में एक नया अध्याय जुड़ गया है जिसका नाम है 'अहसास अल्फ़ाज़ों में बयां बातें'. जहाँ आप दिल खोल कर अपने मन की बात बोल सकते हैं. जो चाहें बता सकते हैं. चलिए आईये शुरू करते हैं आज की पहली कहानी जिसको लिखा है अनिता तोमर ‘अनुपमा’:
शाम का समय था। सूरज अभी डूबा नहीं था। आनंदिता छत पर टहलने
के लिए आई थी। शादी के बाद वह पहली बार अपनी ससुराल आई थी। नकुल और आनंदिता दोनों
एक ही ऑफिस में काम करते थे। दोनों में प्यार हो गया और घरवालों की सहमति से दोनों
का विवाह पुणे में ही धूमधाम से हो गया। पुणे में पली-बढ़ी आनंदिता के लिए ससुराल
में यह उसकी पहली होली थी।
पिछले साल कंपनी के काम के सिलसिले में नकुल को छुट्टी नहीं
मिल पाई थी इसलिए दोनों होली पर आ नहीं सके थे। छत पर घूमते-घूमते वह पिछले घर की
छत की ओर देखने लगी। दोनों घरों की छतों के बीच में छोटी-सी दीवार थी जिसे लांघकर
कोई भी दूसरी ओर आसानी से जा सकता था। आनंदिता अभी कुछ सोच ही रही थी कि उसे हाथ
में टोकरी लिए एक अधेड़ उम्र की महिला छत पर आती हुई दिखाई दी। उसने टोकरी एक तरफ
रख दी और छत पर बिछी चादर पर फैले हुए आलू के चिप्स पर हाथ फेरने लगी।
अनंदिता के चेहरे पर एक मुस्कान फैल गई। उसने जोर से आवाज
लगाकर पुकारा,
‘सुखवंती ताई,
नमस्ते!’
अपना नाम सुनकर उस अधेड़ उम्र की महिला ने मुड़कर देखा। नीले
रंग के सलवार सूट में उस दुबली-पतली अजनबी लड़की को देखकर उसने हैरानी से पूछा, ‘बेटा!
कौन हो तुम? मुझे कैसे जानती हो?’
‘ताई जी,
मैं नकुल की पत्नी हूं। कल ही पुणे से आई हूं’ आनंदिता
ने चहककर कहा। ‘अच्छा! नकुल की बहू हो। मैं तो तुम्हें पहली बार देख रही हूं। तुमने मुझे कैसे
पहचाना?’ सुखवंती ने आश्चर्य से पूछा। अनंदिता ने हंसते हुए कहा, ‘ताई जी, नकुल
ने आपके बारे में इतना कुछ बता रखा है कि मैं तो आपको भीड़ में भी पहचान लूंगी।’ सुखवंती
के चेहरे पर आश्चर्य और ख़ुशी का मिला-जुला भाव था। उसने पूछा, ‘अच्छा, क्या-क्या
बताया है नकुल ने मेरे बारे में?’
आनंदिता मुस्कुराई और बोली, ‘नकुल ने मुझे बताया था कि
कैसे वो और बड़े भैया दोपहर के समय छत से कूदकर आपके आंगन में लगे आम के पेड़ पर
चढ़कर आम तोड़ते थे। एक बार तो आपके कुत्ते ने पेड़ पर चढ़ते हुए नकुल की पैंट
खींच ली थी।’ कहते-कहते आनंदिता ज़ोर से हंस पड़ी। उसे हंसता देख सुखवंती भी अपनी हंसी रोक
नहीं पाई। फिर बोली,
‘नहीं री! दरअसल नकुल को पता ही नहीं था कि हमारे घर में एक
कुत्ता आ गया है। वह गर्मियों की छुट्टियों में अपनी नानी के घर गया हुआ था। उसी
बीच मेरा भाई गांव से एक कुत्ता ले आया। उस दिन जैसे ही नकुल पेड़ पर चढ़ने लगा, कुत्ते
ने पीछे से आकर उसकी पेंट खींच ली। सबने उसका खूब मज़ाक बनाया।’ चादर
पर पड़े आलू के चिप्स को टोकरी में भरती हुई सुखवंती बोली, ‘सूरज
देवता तो भाग रहे हैं,
देखो कल तक तैयार होते हैं या नहीं।’ आनंदिता
ने पूछा, ‘ताई जी, आप मुझे गुझिया बनाना सिखाएंगी क्या?
नकुल आपकी बनाई गुझिया की बहुत तारीफ़ करते हैं।’ आनंदिता
लगातार बोले जा रही थी और सुखवंती की नज़रें उसके प्यारे से चेहरे पर टिकी हुई थीं।
वह सोच रही थी कि सालों पहले दोनों परिवारों में छोटी-सी बात को लेकर मनमुटाव हो
गया था और उसके बाद से रिश्तों में इतनी कड़वाहट आ गई कि बोलचाल भी बंद हो गई थी।
आनंदिता सुखवंती के हंसने का कारण नहीं समझ पाई परंतु उनके
निश्छल प्यार और अपनेपन से गदगद हो उठी। होली के दिन सुबह से मोहल्ले में चहल-पहल
थी। छोटे-छोटे बच्चे रंगों में सराबोर धमाचौकड़ी मचा रहे थे। गली में ढोल बज रहा था
और कुछ मनचले लड़के नाच रहे थे। आनंदिता की इस घर में पहली होली थी इसलिए घर में एक
अलग ही रौनक थी। तभी दरवाजे की कुंडी खड़की। महेश भैया उस समय निक्कू के लिए
पिचकारी भर रहे थे। वे ज़ोर से बोले,
‘दरवाज़ा खुला है भई! आपका ही घर है, चले
आइए।’ दरवाज़ा खुला तो देखा सामने सुखवंती ताई और रमा भाभी हाथ में थाली लेकर खड़ी थी।
महेश भैया उन्हें हैरानी से देखते रह गए। सुखवंती ताई ने उनके गाल पर एक चपत लगाकर
कहा, ‘पता है मुझे,
हमारा ही घर है। ऐ महेश... क्या रे! बड़ों को नमस्ते करना भी
भूल गया क्या?’
तब तक महेश भैया मानो नींद से जाग चुके थे। तुरंत सुखवंती
ताई जी और भाभी जी के पैर छुए और उन्हें आदर से अंदर लेकर आए। दोनों बरामदे में
पड़ी चारपाई पर बैठ गईं। सुखवंती ताई को घर में देखकर आनंदिता की सासू मां तुरंत
बाहर आईं और उनके पैरों पर रंग लगाकर पैर दबाने लगी।
सुखवंती ताई ने तुरंत साड़ी के पल्लू से रंग का पैकेट निकाला
और उनको लगाते हुए बोली,
‘होली के रंग ख़ूब खिलें।’ उन्होंने भावुक होकर कहा ‘दीदी
आज सचमुच इतने सालों बाद पहली बार होली...होली जैसी लग रही है।’ घर में
सुखवंती ताई को देखकर सभी के चेहरे खिले हुए थे। आंगन खिलखिलाहटों से गूंज रहा था।
सुखवंती ताई आनंदिता को थाली पकड़ाते हुए बोली, ‘ये गुझिया मैं ख़ास तुम्हारे
लिए लाई हूं।’ नकुल मुंह बनाकर बोला,
‘ताई जी! ये बात ग़लत है। बेटे से ज्यादा बहू प्यारी हो गई।’ आनंदिता
ने गुझिया खाते हुए कहा,
‘ताई जी सचमुच आपकी बनाई गुझिया में जो स्वाद और मिठास भरी
है, खाकर आत्मा तृप्त हो गई।’
रंग और स्वाद के बीच दो परिवारों में रिश्ते फिर हरे हो गए।
नई बहू के स्नेह और गुझिया की मिठास से सारी कड़वाहटें भुला दीं।
तो ये थी हमारी आज की पहली कहानी. ऐसी ही रोचक कहानी पढ़ने
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1 Comments
Welcome Anita
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