लीजिये आज हम फिर से हाज़िर हैं एक नए और रोचक कहानी के साथ. जिसको लिखा है उमा महाजन जी ने. तो चलिए बिना देर किये पढ़ते हैं कहानी- प्रेम की न कोई जात न कोई आधार
अपने दाएं हाथ में एक लिफाफा लटकाए बुधिया ने अत्यंत चहकते हुए घर में प्रवेश किया, ‘बीबी जी! आज मैं आप लोगों के लिए थोड़े से घीया लेकर आई हूं। असल में मैंने एक दिन घीया के कुछ बीज हमारे घर के साथ जुड़ते खाली प्लॉट में डाल दिए थे। बीज और धरती दोनों उपजाऊ थे। बीज अंकुरित हो गए। मैंने नियम से देखभाल शुरू कर दी। अब तो वहां खूब सारे नरम घीया उग आए हैं। परसों मैं थोड़े से शर्मा बीबी जी के लिए लाई थी।’ उसका उत्साह उछल रहा था। हंसते हुए पुन: बोली, ‘कल हमने ख़ुद इसकी सब्ज़ी बनाई, बहुत स्वाद बनी थी। घर के घीया की सब्ज़ी बच्चों ने भी उंगलियां चाट-चाट कर खाई। मैंने सोचा आज आप लोगों के लिए भी ले जाऊं।’ रसोई घर में कार्यरत सरिता ने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए ख़ुशी से लबालब बुधिया को ‘वाह! तुम्हारी तो मौज हो गई’ कहा और लिफाफा डाइनिंग टेबल पर रख देने को कहा।
बुधिया ने बड़े प्यार से लिफाफा डाइनिंग टेबल पर रखा और नियमानुसार
सफ़ाई करने के लिए पहले छत वाले हिस्से में चली गई। उसके जाते ही सरिता की दादी
सास ने उसे आंखें तरेरते हुए धीमे स्वरों में फटकार लगाई, ‘तुम्हें
कुछ नियम-कायदे पता हैं या नहीं? इस घर में अब एक काम वाली
के घर से आई सब्ज़ी बनेगी? हम लोग इनका पेट भरने के लिए हैं,
इनका कमाया खाने के लिए नहीं। मात्र 10-20 रुपए की सब्ज़ी के लिए
उम्र भर का एहसान! न भई न, अभी वह नीचे आएगी तो किसी भी
बहाने से घीया लौटा देना। वैसे भी कोरोना की इस महामारी में न जाने कहां से उठा
लाई है? तुम्हारे बाबूजी को पता चला तो सब्ज़ी उठाकर बरतन
समेत बाहर फेंक देंगे।’ सकपकाई सरिता जब तक परिस्थिति को समझ
पाती उसके समीप खड़ी उसकी ननद अपनी दादी मां के तीखे स्वर सुनकर तुरंत उनके निकट आई
और उन्हें शांत करते हुए बोली, ‘दादी, बात
एहसान की नहीं, प्रेम की है। आपने बुधिया के छलकते आनंद की
ओर ग़ौर नहीं किया न?
दादी मां नि:शब्द, अपने होठों पर हल्की स्मित लिए उनको निहार रही
थीं।


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