लीजिये आज हम फिर से हाज़िर हैं एक नए और रोचक कहानी के साथ. जिसको लिखा है दर्शना बांठिया जी ने. तो चलिए बिना देर किये पढ़ते हैं कहानी- हर उम्र का रिटायरमेंट.
‘ये क्या आज खाने में फिर से गोभी बना ली। बाऊजी को और तुम्हारे ससुर जी को गोभी पसंद नहीं है। मुझे भी एसिडिटी और गैस रहती है तो शाम के खाने में इतनी तीखी सब्ज़ी मत बनाया करो। अब दाल से रोटी चबाएं?’ संगीता ने बहू रेशमा से कहा। ‘पहले नहीं बतातीं, कल से जो भी सब्ज़ी खानी हो पहले से ही बता दीजिए, अन्यथा जो मिले, वही खा लें’ ज़ोर-जोर से बर्तन पटकते हुए रेशमा जिस आवाज़ में बड़बड़ा रही थी, उसे संगीता आराम से सुन सकती थी। ‘अरे! बर्तन क्यों पटक रही हो, पता है न घर में तुम्हारे दादा सुसर (जयशंकर जी) बैठे हैं। थोड़ा बड़े-बुज़ुर्गों का भी लिहाज़ किया करो। और ये नई क्रॉकरी और पुरानी क्रॉकरी मिक्स क्यों कर दी? मेहमानों के लिए अलग और बेटी-दामाद या दूसरे ख़ास रिश्तेदार आएं तो उनके लिए अलग सजाकर रखी थी। और तुमने क्या हाल कर दिया इनका। साज-सज्जा की बिल्कुल समझ नहीं है, बहू तुममें।’ संगीता ने चिढ़ते हुए शो केस से बर्तन निकालते हुए कहा। ‘एक तो काम करो, ऊपर से सुनो। ख़ुद तो मेहमानों के सामने जाकर बैठ जाएंगी, ये नहीं कि मैं भी कुछ कर लूं। कभी चाय, कभी नाश्ता, थक जाती हूं ये सब करके। ऊपर से ये नहीं किया वो नहीं किया, इतना ही शौक़ है तो ख़ुद ये सब क्यों नहीं करतीं?’ रेशमा का बड़बड़ाना जारी था। संगीता अपनी बहू को कुछ जवाब देती इतने में ही उनके ससुर जयशंकर जी ने खंखारकर आने की सूचना दी और खाना लगाने की आवाज़ दी। हालांकि, जयशंकर जी के लिए ये सास-बहू का वृत्तांत नया नहीं था।
अक्सर दोनों के बीच की कहा-सुनी सुनते रहते थे पर जयशंकर जी इन सबको अनदेखा कर अधिकतर समय पार्क में या दोस्तों के साथ बातचीत व टहलने में ही व्यतीत करते। उनकी पत्नी ने अंतिम समय में कहा था ‘आपका स्वभाव थोड़ा कड़क है, मुझे चिंता होती है आपकी कि मेरे जाने के बाद आपका क्या होगा। मुझसे वादा करो कि आप बेटे-बहू के साथ अंत तक निभाव बनाए रखोगे।’ रह-रहकर पत्नी के यही शब्द याद आते और जयशंकर जी कितना भी घर में कलह हो, बोलते ही नहीं थे। वो यही सोचते कि अब उम्र ही कितनी शेष रह गई है, वो क्यों बेकार में घर में दख़लअंदाज़ी करें। उनकी पत्नी ने यह अचूक मंत्र दिया था ‘एक चुप सौ सुख।’ बस वो उसी पर अमल करते थे। संगीता ने सिर पर पल्लू लिया और ससुर जी को थाली परोसने चली गई। ‘आज फिर गोभी, चलो कोई नहीं। मुझे साथ में अचार और दाल दे देना, मैं उसी से काम चला लूंगा’ जयशंकर जी ने कहा।
‘वो मैंने तो रेशमा बहुरिया को कहा लेकिन’ संगीता अटकते हुए बोल रही थी पर ससुरजी ने हाथ का इशारा किया और कहा ‘ठीक है बहू, कोई बात नहीं, बच्ची है भूल जाती होगी’ कहकर बात टाल दी। ‘ओफ्फो, ये फूल भी न अब पॉट में पुराने हो गए हैं, मैं इन्हें कल ही बदल दूंगी। रेशमा को रोज़ कहती हूं कि घर में कहीं भी बासी चीज़ दिखे उसे उठाकर फेंक दिया कर, चीज़ों को थोड़ा साफ़-सुथरा रखा कर, पर ये आजकल की जेनरेशन कान में रुई लगाकर रहती है, कोई असर नहीं’ संगीता जयशंकर जी के कमरे को सजाते हुए बोली। ‘रहने दो बहू ,हर चीज़ का एक समय होता है। आख़िर कब तक ये फूल ताज़ा रहेंगे। हर चीज़ की एक अवधि होती है। अब देखो न कुछ साल पहले मेरा भी कहां मन था कि मैं बैंक की नौकरी छोड़ूं, सोचता था थोड़ा बच्चों के लिए घर-परिवार के लिए और काम कर लूं, पर फिर सोचा आख़िर ज़िंदगी वहीं 9 से 5 में व्यतीत कर दूं। आख़िर अपने लिए कब जीना सीखूंगा। तुम्हें भी एक सलाह देना चाहता हूं बहू, अब तुम भी रिटायरमेंट ले लो।’
‘रिटायरमेंट मैं...? मतलब?’ संगीता अटकते हुए बोली। ‘हां बहू ,मैं रोज़ तुम्हारी और छोटी बहू की बातचीत सुनता हूं। तुम भी समझदार हो और वो बच्ची है। तुम लोग बातचीत कम और कलह ज़्यादा करते हो। देखो, ये साफ़ नहीं किया, ये ऐसे नहीं किया, घर को ऐसे चमकाना ... वग़ैरह, ऐसी छोटी-छोटी और बेतुकी बातों से तुम अपना ख़ून जलाती हो। तुमने इस घर को 30 साल अपनी मर्ज़ी से चलाया है न, जो तुम्हें साज-सज्जा पसंद थी, जैसे तुम सामान को रखती थीं, तो अब बहू को भी उसके हिसाब से करने दो ना।’
‘देखो, जब तुम आईं तो तुम्हारी सास ने तुम्हें घर की बागडोर संभालने दे दी। अब तुम भी बहू के हिसाब से तालमेल बिठाने की कोशिश करो। मैं ये नहीं कहता कि तुम कोई काम न करो, बल्कि तुम छोटी बहुरिया के साथ सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करों। एक बार घर कम ही चमकेगा या खाना ऊपर -नीचे बनेगा, ठीक है चलेगा, पर इससे घर में क्लेश तो नहीं होगा।’ संगीता मुग्ध होकर ससुर जी की बातें सुन रही थी। ‘मैंने हमेशा तुम्हें अपनी बेटी की तरह समझा है इसलिए तुम्हें समझा रहा हूं, एक उम्र के बाद तुम घर -गृहस्थी से मोह हटाओगी, तो आगे का जीवन सुखमय व्यतीत कर पाओगी। अपने शौक़ पूरे करो, वो सब कुछ करो जो तुम इतने साल गृहस्थी की व्यस्तता के कारण नहीं कर पाईं। बहू के साथ प्यार और अपनत्व की पहल करो, ताकि रिटायरमेंट के बाद तुम्हें उससे स्नेह व सम्मान की पेंशन मिलती रहे’ जयशंकर जी ने मुस्कराते हुए कहा।
संगीता आज ससुर का यह रूप देख चकित रह गई। कितने सरल मन से बाऊ जी ने उसे सही आईना दिखा दिया। अब बस कोशिश करनी है कि उनकी बातों को आचरण में ला सके। ‘बाऊ जी, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। आज आपने एक पिता की तरह मुझे भली-भांति समझा दिया। मुझे जीवन का वास्तविक आईना दिखा दिया। सच में घर में बड़े-बुज़ुर्गों का होना किसी वरदान से कम नहीं होता’ भावविभोर होकर संगीता ने बाऊ जी के पैर छुए और आशीर्वाद लिया।
तो ये थी हमारी आज की पहली कहानी. ऐसी ही रोचक कहानी पढ़ने के लिए जुड़ें हमारे साथ और अपनी कहानी/कविता पोस्ट करवाने के लिए हमें मेल कीजिये @jmdnewsconnect@gmail.com पर और हमारे साइट को दूसरे प्लैटफॉर्म्स पर फॉलो करने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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