शहर में होली है सिर्फ एक दिन का त्योहार। गांव वाली मस्ती नहीं है, बच्चों के पास भी नहीं। बड़े घर में रंग भी नहीं खेलने देते, ये बोलकर कि दीवारें और फर्श खराब हो जाएंगे। खेलना है तो सड़क पर खेलो, वो भी सिर्फ एक-दो घंटे। और एक तब की होली थी- गांव में हमारे बचपन की होली। अब नहीं पता कैसे मनाते हों गांव में लेकिन तब की बात बताएं, तो हमारे यहां होली की शुरुआत शिवरात्रि के दिन से होली के बल्ले बनाने से होती थी। होली के बल्ले मतलब गोबर की प्यारी-प्यारी और विचित्र आकृतियां जिसमें ताजमहल से लेकर एफिल टावर तक बना लेते थे हम बच्चे। और हां, होड़ भी होती थी कि किसके बल्ले ज़्यादा सुंदर और अधिक बने हैं।
इसके लिए, समय से अगर अपने घर का गोबर न उठाया तो गोबर चोरी भी हो जाता था। फिर दिवाली के रूप चौदस की तरह होली जलने वाले दिन शाम को सबको उबटन भी लगाया जाता और फिर उस मैल को रात को होलिका में डाल दिया जाता, साथ ही अपने-अपने हिस्से के बल्ले भी। और फिर उस होली से अग्नि का एक पवित्र टुकड़ा घर भी लाया जाता। भोर से सभी पुरुष गांव भर में फाग गाते फिरते और महिलाएं पकवान बनाने में व्यस्त रहतीं। हम लोग फाग में हुरियारों को मिलने वाली खाद्य-सामग्री में कुछ खाएं या न खाएं लेकिन पान ज़रूर खाते थे। अच्छा लगता था जब शरीर के साथ-साथ मुंह भी रंगा होता था।
सुबह ढलने के बाद मुहल्ले की हम सारी लड़कियां भी होली खेलने निकलतीं। एक बार यूं ही खेलने के लिए निकल रहे थे कि पड़ोस के एक चाचाजी दौड़ते हुए आए। बोले ‘दीदी, हमें अकेले जाने से डर लगता है इसलिए हमें भी अपने साथ ही लेते चलो, हम भी भाभी के साथ होली खेलेंगे।’ चाचाजी की उम्र 10 वर्ष थी इसलिए हम सबको दीदी बोलते क्योंकि हम सब चाचाजी से उम्र में बड़ी थीं/हैं। जब हम पड़ोस वाली चाची के घर गए तो नन्हे से चाचाजी ने उछल-उछल अपनी भाभियों को रंग लगाया, भाभियों ने भी प्रेम से लगवाया। फिर नन्हे देवर जी की भाभियों ने होली खेलना शुरु किया, तो वे चिल्ला पड़े। हम सभी लड़कियां चाचाजी को बचाने के लिए अपनी तरफ खींचें और चाचियां अपनी तरफ। बेचारे चाचाजी की हालत ख़राब हो गई। वो भागकर दरवाज़े के बाहर जाकर खड़े हो गए।
चाचियों ने कहा ‘देवर बबुआ, जब हमारे क़द में आना तब खेलना होली, वरना यही हाल होगा।’ कई घर खेलने के बाद हम थक चुके थे तो सड़क पर वाले शिवाले पर आकर बैठ गये थे। इस चालाकी से कि जो भी सड़क से गुज़रेगा हम उस पर रंग फेकेंगे। बहुत देर तक सड़क से कोई न गुज़रा, तो हारकर हम लोगों ने पिचकारी का सारा रंग भोलेबाबा पर ही चढ़ा दिया। और जैसे ही हम सबके रंग और गुलाल भोलेबाबा पर ख़र्च हुए वैसे ही सड़क पर घसीटे बाबा छड़ी लेकर आते दिखाई पड़े। हमारे रंग खत्म हो गए थे तो क्या लेकिन होली तो हमें मनानी ही थी सो हम सब जोर से चिल्लाये ‘बाबा आइलव्यूू।’ घसीटे बाबा रुक गए उन्होंने पूछा, ‘बिटिया आइलव्यू मतलब?’ एक दीदी तपाक से बोलीं ‘बाबा आइलव्यू का मतलब पांय लागी।’ बाबा बहुत ख़ुश हुए, उन्होंने हम सबको बहुत आशीर्वाद दिए और चले गए। न जाने कितने किस्से हैं जिनसे होली की यादें सदा रंगीन रहेंगी।
तो ये था हमारा आज का संस्मरण. ऐसे ही रोचक संस्मरण पढ़ने के लिए जुड़ें हमारे साथ और अपनी कहानी/कविता/खत/संस्मरण पोस्ट करवाने के लिए हमें मेल कीजिये @jmdnewsconnect@gmail.com पर और हमारे साइट को दूसरे प्लैटफॉर्म्स पर फॉलो करने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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