जान की कीमत
लीजिये आज हम फिर से हाज़िर हैं एक नए और रोचक कहानी के साथ. जो हमें नेट से प्राप्त हुआ है. तो चलिए बिना देर किये पढ़ते हैं कहानी- ‘जान की कीमत’
एक राजा था जिसे शिल्प कला में अत्यंत रुचि थी। उनकी पसंद
भी आला थी। वह मूर्तियों की खोज में देस-परदेस जाया करते और वहां से मूर्तियां
लाते। इस प्रकार राजा ने कई मूर्तियां राजमहल में सजाई हुई थीं। सभी मूर्तियों में
उन्हें तीन मूर्तियां जान से भी ज़्यादा प्यारी थीं। सभी को पता था कि राजा को उनसे
अत्यंत लगाव है।
एक दिन जब एक सेवक इन मूर्तियों की सफ़ाई कर रहा था तब ग़लती
से उसके हाथों से उनमें से एक मूर्ति टूट गई। जब राजा को यह बात पता चली तो उन्हें
बहुत क्रोध आया और उन्होंने उस सेवक के लिए तुरंत मृत्युदंड का फरमान जारी कर
दिया। सज़ा सुनने के बाद सेवक ने तुरंत अन्य दो मूर्तियों को भी तोड़ दिया। यह देख
कर सभी को आश्चर्य हुआ।
राजा ने उस सेवक से इसका कारण पूछा, तो उस
सेवक ने कहा - ‘महाराज! क्षमा कीजिएगा,
यह मूर्तियां मिट्टी की बनी हैं, अत्यंत
नाज़ुक हैं। अमरता का वरदान लेकर तो आई नहीं हैं। आज नहीं तो कल टूट ही जातीं। मेरे
जैसे किसी प्राणी से ही टूटतीं और उसे भी अकारण ही मृत्युदंड मिलता। मुझे तो
मृत्युदंड मिल ही चुका हैं इसलिए मैंने ही अन्य दो मूर्तियों को तोड़कर उन दो
व्यक्तियों की जान बचा ली।’ यह सुनकर राजा की आंखें खुल गईं। उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हुआ और उन्होंने
सेवक को सज़ा से मुक्त कर दिया।
सेवक ने उन्हें सांसों का मूल्य सिखाया, साथ ही
सिखाया कि न्यायाधीश के आसन पर बैठकर अपने निजी प्रेम के चलते छोटे से अपराध के
लिए मृत्युदंड देना उस आसन का अपमान हैं। राजा को समझ में आ गया कि उनसे कई गुना
अच्छा तो वो सेवक था जिसने मृत्यु के इतना समीप होते हुए भी परहित की सोची। राजा
ने सेवक से पूछा,‘अकारण मृत्यु को सामने पाकर भी तुमने ईश्वर को नहीं कोसा, तुम
निडर रहे। इस संयम,
समभाव तथा दूरदृष्टि के गुणों के वहन की युक्ति क्या है?’ सेवक
ने बताया, ‘राजमहल में काम करने से पहले मैं एक अमीर सेठ के यहां नौकर था। मेरा सेठ मुझसे
तो बहुत ख़ुश था लेकिन जब भी कोई कटु अनुभव होता तो वह ईश्वर को बहुत गालियां देता
था।’
तो मैने कहा,
‘सेठ जी,
आप मेरे मालिक हैं। रोज़ ही स्वादिष्ठ भोजन देते हैं। अगर एक
दिन कुछ कड़वा भी दे दिया तो उसे स्वीकार करने में क्या हर्ज़ है! राजा जी, इसी
प्रकार अगर ईश्वर ने इतनी सुख–सम्पदाएं दी हैं,
और कभी कोई कटु अनुदान दे भी दे तो उसकी सद्भावना पर संदेह
करना ठीक नहीं। जीवन तथा मृत्यु सब उस ईश्वर की देन है। उसकी भेंट को स्वीकार करते
हुए भी अगर परहित की सोच सकें,
तो मानव जीवन सार्थक होगा।’
तो ये था हमारी आज की कहानी. ऐसी ही रोचक कहानी पढ़ने के लिए
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